गिलास
लोटा
कलछी
गंजी
चमकती स्याही से
कॉपी के पिछले पन्नों पर
शायद रात के वक़्त
एकदम तनहाई में
उससे बात करने के बाद
किसी प्यारी सी कविता से
चोरी -चोरी लिखे यह शब्द !
हाँ,
तुम्हारी आँखें चमक रही हैं
और यह मुस्कान
जो स्वाभाविक से भी थोड़ी ज्यादा पाता हूँ मैं
तुम जो गुनगुनाती हो
दिल के तराने
हाँ , हाँ
मैं सुन रहा हूँ !
मैं देखता हूँ
तुम्हारा
प्रेम में कुलांचे मारना
अक्सर तुम्हारे
शून्य में खो जाने का राज
अब समझ आ रहा है
धीरे - धीरे
कि समझ आ रहा है की बोर्ड पर टकटकाती
तुम्हारी उंगलियाँ
शब्द नहीं
लिख रहीं थीं प्रेम !
हाँ, मैं देख रहा हूँ
अब से कुछ बरस पहले
एक पुरानी से डायरी में
पीछे के पन्नों पर
अब भी नख्ती है
लोटा
बाल्टी
कलछी
गिलास
वक़्त गुजर गया
शब्द, शब्द ही रहे
प्रेम न हो सके !
- राकेश मालवीय ,
0 टिप्पणियाँ