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दुबे जी, हम करेंगे आपके सपने पूरे

महेश्वर में आयोजित सम्मलेन को संबोधित करते दुबेजी 
दुबे जी ने कहा था आप लोग शुरू करो, दिल्ली से हर संभव मदद दिलाने का मैं  वायदा करता हूं। अफसोस उनके  सपनों को हम छोटी-मोटी कोशिशों से साकार कर पाते इससे पहले ही वह चले गए। उम्र के इस मुकाम पर पहुंचकर भी  उनके अंदर के जज्बात, हौसले, उर्जा, उनके सपनों, स्नेह, और सम्मान को समझा जा सकता था। आज सुबह सचिन भाई ( नई इबारतें वाले  )   की पोस्ट से जब यह सूचना मिली तो पूरा दफ्तर  सन्न था। हम सभी के लिए यह एक गहरा आघात था। केवल एक व्यक्ति के रूप में ही नहीं, मीडिया के बदलते परिवेश  में वह उन चंद लोगों में थे जो अब भी अखबारनवीसों की ताकत को एकजुट होने की बात कहते थे, मीडिया में बदलाव की बात करते थे, मानकों की बात करते थे। महेश्वर  में मीडिया सम्मेलन के बाद दुबे जी हमारे लिए एक प्रेरणा पुरूष बन गए थे।


दुबेजी  से कोई बहुत पुराना नाता नहीं थी। इसी साल में जब विकास संवाद के सालाना सम्मेलन के लिए लोगों से बातचीत हो रही थी तो पशुपति  भाई ने दुबे जी के बारे मे बताया  था। भाई प्रशांत  दुबे ने उनसे बात की तो पहला फोन ही लगभग पौन घंटे की अवधि का रहा होगा। इसी से उनकी जिज्ञासा को समझा जा सकता है।
 पशुपति भाई के साथ जब दुबे जी 14-15 घंटे का लंबा सफर तय करके महेश्वर  पहुंचे थे। उनको देखा तो एक बारगी सोच में पड़ गया कि आखिर कौन सी उर्जा है इस व्यक्ति के अंदर जो इस अवस्था में इतने कष्ट सहने के बाद एक सम्मेलन में शरीक होने चला आया है।

इस बार सम्मेलन में हमने नर्मदा घाटी के पांच गांवों में चलने की यात्रा करने की योजना तैयार की थी। बातचीत के बाद तय किया गया था कि पहले ही दिन गांवों में जाया जाए, वहां लोगों से बात करें। घाटी के लोगों ने हमसे पहले ही वायदा ले लिया था कि मेहमानों को हम ही भोजन कराएंगे। पांच समूह निकले थे। तीन जीप से और दो बस से। मैं जिस जीप में था उसकी अगली सीट पर दुबे जी विराजमान थे। नर्मदा बचाओ आंदोलन की कार्यकर्ता रामकुंवर भी साथ थीं। बीच की सीट पर राकेश  दीवान, रितुजी, रानूजी, सीमाजी  बैठे थे। पीछे शेख भाई, आसिफ भाई, आशीष  अंशु  भाई और मैं ठुसे हुए थे। खास बात यह थी कि हमारा गांव मरदाना सबसे दूर था और रास्ता बेहद खराब। लगभग तीन घंटे की थका देने वाली यात्रा के बाद हम गांव में पहुंचे थे। लगभग आठ बजे हमने एक घर में चाय पी। उनसे सामान्य बातचीत होती रही। यह घर बेहद जुदा अंदाज में बना हुआ था। दुबे जी घर की उसारी में पड़े झूले पर बैठे। चाय पी। इसके बाद हमें नर्मदा किनारे एक मंदिर में जाना थां। अंधेरे के कारण इस घाट के सौंदर्य को तो हम नहीं देख सके, लेकिन दाल-बाटी और चावल खाना बहुत राहत भरा था। मंदिर से
लौटते-लौटते नौ बज गए थे। इस बीच पूरे गांव में खबर हो गई थी और लोग बातचीत के लिए जमा थे। कोई घरों की टिपटियों पर, कोई फट्टों पर और कोई अपने जूतों और चप्पलों को ही नीचे दबाकर बैठा था। गांव वाले पूरे तथ्यों और आंकड़ो के साथ अपनी-अपनी बातें कह रहे थे। इतनी कहानियां, इतनी बातें थी कि पूरी रात भी बैठक चल सकती थी। मुझे बीच में आना पड़ा और मैंने निवेदन किया कि दुबे जी सहित सभी लोग काफी दूर-दूर से आए हैं, थके हुए हैं और अभी लंबा सफर तय करके वापस महेश्वर भी जाना है। आखिरी बातचीत के रूप में दुबे जी ही सामने आए थे। वह अभिभूत थे। इस पूरी लड़ाई को और लड़ने वालों को उन्होंने प्रणाम किया था। उन्होंने आशा  भी जताई थी कि एक न एक दिन यह लड़ाई जरूर बेहतर परिणाम की तरफ जाएगी। उन्होंने कहा था आज मुझे लग रहा है कि हम दिल्ली में बैठकर कुछ भी नहीं कर रहे, असली लड़ाई जो है वह आप लोग ही लड़ रहे हैं।

पूरे रास्ते भर आते-जाते उन्होंने बातचीत में एक सूत्रधार की भूमिका अदा की। नर्मदा बचाओ आंदोलन के साथ राकेश भैया का एक लंबा रिश्ता  रहा है। उनके पास आंदोलन की कहानियों का विशाल  भंडार है। राकेश  भैया की जान-पहचान और दोस्ती का दायरा भी बहुत बड़ा है, लेकिन दुबे जी से उनकी भी यह पहली मुलाकात थी। बात जब इधर-उधर के चुटकुलों से आंदोलन की कहानियों पर आई तो राकेश  भैया एक के बाद एक सुनाते चले गए। कहानियों में हुंकारा भरने वालों में भी दुबे जी सबसे आगे थे। इतनी लंबी यात्रा के बाद उनका शरीर भले ही थक-थक जा रहा हो, लेकिन वह नहीं थके थे। महेष्वर से 12 किमी दूर एक जगह हमने गाड़ी रोककर चाय पी,। महेश्वर  पहुंचे तो हमारे अलावा बाकी के सभी लोग कहीं पहले पहुंच गए थे। कई बिस्तरों में जा पहुंचे थे। अजीत सर, अखलाक भाई, पुष्यमित्र ने बाहर मंडली जमा रखी थी।
मरदाना गाँव में लोग अपनी बात कहते हुए. फोटो  में दुबे जी भी नजर आ रहे हैं 


 दूसरे दिन आधार वक्तव्य के बाद कृष्णन दुबेजी ने भी अपनी बात रखी थी। उन्होंने कहा था कि सभी को मालूम है कि समस्या क्या है, हमें उसके हल की तरफ बढ़ना चाहिए। उन्होंने कहा था कि मौजूदा दौर में टे्रड यूनियन या तो खत्म हो गए हैं या निष्क्रिय हैं,। सबसे पहले जरूरत इस बात की है कि जगह-जगह ट्रेड  यूनियन का गठन किया जाए ताकि पत्रकार तो कम से कम अपने पर हो रहे अन्याय का विरोध कर सके। दूसरे उपाय के तौर पर उन्होंने वैकल्पिक मीडिया के बढ़ावे की बात कही थी। इसके लिए एक लाख रूपए की मदद दिल्ली स्तर पर करने की बात भी की थी। पूरे सम्मेलन में वह सबकी बातों को ध्यान से सुनते रहे। कभी हॉल में बैठकर, थक जाते तो बाहर कुर्सी लगाकर बैठ जाते।

सम्मेलन से लौटकर दुबे जी ने सम्मेलन की थीम मीडिया के मानक और समाज पर हमें एक लंबा आलेख भेजा था। लगभग आठ पेज के इस आलेख में उनकी सोच, सपने और नजरिया साफ झलकता है।

दुबे जी का चले जाना एक खालीपन के आ जाने जैसा है। अलग-अलग लोगों के साथ उनके कितने-कितने अनुभव थे। दुबे जी आप याद आते रहेंगे। आपकी बातें हम सभी के लिए हमेशा प्रेरणा रहेंगी.  

- राकेश मालवीय

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