tag:blogger.com,1999:blog-2801842398484581883.post5214693199292373199..comments2023-08-12T09:04:57.596-07:00Comments on पटियेबाजी : खबरRakesh Malviyahttp://www.blogger.com/profile/06092807049390363796noreply@blogger.comBlogger1125tag:blogger.com,1999:blog-2801842398484581883.post-28957030299506283592013-10-16T03:43:33.286-07:002013-10-16T03:43:33.286-07:00राकेश भाई। बहुत जज़्बाती लगी ये कहानी (ख़ुदाया, कह...राकेश भाई। बहुत जज़्बाती लगी ये कहानी (ख़ुदाया, कहानी ही हो)।<br /><br />एक बार भोपाल में ही विकास को लेकर मेरे साथ भी ऐसा ही अनुभव घटित हुआ था। मैंने तो उसके जन्मदिन पर शुभकामनाएँ देने के लिए कॉल किया था उसे। उधर से कॉल उठते ही फित्रतन मस्ती भरे अंदाज़ में मैंने एक ही साँस में जन्मदिन की शुभकामनाएँ और तमाम दुआएँ जैसे उस पर उड़ेल दीं।<br /><br />'कौन बोल रहे हैं ?', सिर्फ इतना-सा उत्तर मिला।<br /><br />'अरे मैं बोल रहा हूँ विकास भाई, मैं उज्जैन से दिनेश 'दर्द'। अपन चित्रकूट और बाँधवगढ़ वाले सेमिनार में मिले थे ना, याद आया ?', मैंने बड़ी उत्सुकता से अपनी पहचान बताई।<br /><br />'विकास से बात हो पाना तो अब मुमकिन नहीं होगा।', उधर से आवाज़ आई। दरअस्ल, फोन उसके भाई ने रिसीव किया था।<br /><br />'लेकिन क्यूँ भाई ? आज तो उसका जन्मदिन है ना।', तमाम हैरत के साथ मेरा अगला सवाल था।<br /><br />'क्योंकि अब वो हमारे बीच नहीं रहा।', विकास के भाई ने जवाब दिया।<br /><br />उफ्फ.....ये कैसी ख़बर। कोई ऐसे मौके पर इस तरह की ख़बर के लिए तैयार हो सकता है भला ? पता नहीं कैसे, लेकिन हक़ीक़त के धरातल पर मैंने वो सच्चाई बर्दाश्त की। हालाँकि पैरों तले ज़मीन खिसक चुकी थी और स्मृतियों में विकास के साथ बीते लम्हे ऐसे मचल रहे थे, जैसे हैलिकाप्टर से गिरते खाने के पैकेटों पर टूटते, बाढ़ में घिरे लोग। कुछ याद नहीं कि मैंने विकास के भाई से और क्या-क्या बातें की थीं लेकिन हाँ, इतना ज़रूर याद आ गया कि मैंने भी ऐसा ही कुछ कहा था कि- 'भाई! कभी भी मेरी ज़रूरत पड़े तो ज़रूर बताना और उज्जैन आओ तो ज़रूर मिलना।'<br /><br />इतने साल हो गए, ना विकास के भाई उज्जैन आए, ना विकास जैसा कोई मिला। हाँ, गाहे-बगाहे विकास ज़रूर आ जाता है अक्सर यादों में, किसी न किसी बहाने।<br /><br />और हाँ, वह जुमला भी बताते चलूँ, जो मैं विकास से बिछड़ते वक़्त अक्सर कहा करता था- 'भाई! अपने भीतर की ये चिंगारी हमेशा जलाए रखना, कभी मद्धम मत होने देना।' दरअस्ल, बहस के दौरान विकास के तेवर ज़बरदस्त हुआ करते थे। सच को सच कहने और आख़िर तक उसके पक्ष में खड़े रहने का साहस देखा था मैंने उसमें। फिर चाहे सामने कोई भी हो, मुश्किल होता था उसकी आवाज़ (दहाड़) को दबाना। बस्स, उसके इसी माद्दे से मुतआस्सिर होकर मैं हमेशा उससे अपने भीतर साहस की ये शम्अ जलाए रखने की गुज़ारिश करता था। और वो भी खिलखिलाकर हँसते हुए कहता था, 'बिल्कुल दिनेश भाई बिल्कुल'<br /><br />अब लगता है शायद मैंने कुछ ज़ियादा ही माँग लिया था उससे। मैं भूल गया था कि मेरी और उसकी मर्ज़़ियों के दरमियान कोई और भी है, जिसकी मर्ज़ी के इक इशारे पर दुनिया का होना-न होना टिका है। और उसी की मर्ज़ी ने एक दिन भोपाल की सड़क पर एक हादसे के बहाने उस शम्अ को हमेशा के लिए बुझा दिया। हालाँकि अब उसके सीने की शम्अ ब-ज़िद मैंने अपने सीने में जला ली है।<br /><br />(मुआफ़ करना, राकेश भाई। आपकी लिक्खी कहानी पढ़ी तो मैं जज़्बाती हो गया और विकास की याद साझा करने से रोक नहीं सका ख़ुद को।)Dinesh Dardhttps://www.blogger.com/profile/13183294752122627467noreply@blogger.com