टिकर

5/recent/ticker-posts

नए साल के लिए कुछ सच्ची कहानियां




राकेश कुमार मालवीय
एक रात जब आप रेल के सफर में हों और चादर छूट जाए तो। स्लीपर कोच में सर्द हवाओं और अंदर से उठती हल्की सी कंपकंपी से बचने का सिवाए एक ही रास्ता कि आप अपने शरीर को सिकोड़ लें, घुटनों को उपर तक लें आएं या बैग में पड़े कुछ कपड़ों का जुगाड़ करने का सोचें। इस स्थ्ज्ञिति में ऐसा भी हो सकता है कि अनजाना सा हाथ आपके शरीर पर बिना कोई जानपहचान के आपके सिकुड़े हुए शरीर पर चादर फैला दे और उसके बाद आप सुकून से आपकी रात गुजर जाए। मेरी दोस्त ने जब मुझे एक मीटिंग के बाद अपनी दोस्ती का यह नगमा इसे जानबूझकर नगमा ही कह रहा हूं, क्योंकि यह किस्सा मुझे गीत साल लगा सुनाया तो मैं एक खुशख्याल में चला गया। क्या किसी दोस्ती की ऐसी खूबसूरत शुरूआत हो सकती है। इस दौर में जब कोई चादर तो क्या बिना किसी मतलब के रूमाल देने को तैयार न हो, तब ऐसे किस्से ही तो मेरे हिंदुस्तान को खूबसूरत बनाते और बनाए रखते हैं। सुबह जब इस किस्से के बाद दो अजनबियों की मुलाकात होती है और मुलाकात खूबसूरत दोस्ती के अहसास में बदलती है तो यह जिंदगी भर का एक खूबसूरत तोहफा बन जाती है। इस किस्से को सुनकर ज​ब मुझे सिहरन सी हो आती है तब वह रिश्ता तो भला क्यों न अनमोल होगा। अफसोस हम अखबारों में रेलगाड़ियों के सफर के उन किस्सों को ही क्यों पढ़ पाते हैं जो हमें अंदर तक डरा देते हैं। 

जेल शब्द से तो हमें भय लगता ही है, जेल की अंदर की​ जिंदगी के किस्से भी हमने सुने ही हैं। जेल में कानून और व्यवस्था को कायम रखने के लिए उसके प्रशासक का एक रौबदार चेहरा आंखों के सामने आता है। एक मीडिया विजिट के सिलसिले में जब हम मध्यप्रदेश के विदिशा जिले में घूम रहे हैं तो वहां के जेलर का एक बेहद खूबसूरत सा किस्सा सामने आता है। विदिशा जिले की महिला जेल में वहां के जेलर आरके मिहारिया ने बच्चों के टीकाकरण के लिए सार्थक पहल की। वैसे भी अपनी मां के साथ सजा भुगत रहे छोटेछोटे बच्चों का कोई दोष समझ में नहीं आता। पर वह चार बच्चे टीकाकरण जैसी जरूरी चीज से क्यों वंचित रहें। यह कोई बड़ा ख्याल नहीं है, कोई क्रांति भी नहीं है, पर संवेदना का इतना बारीक स्तर है, वह भी एकदम हाशिए या अलगथलग पड़ गए लोगों के लिए। हो सकता है कि यह संवेदना किसी किताब में न पढ़ाई जाए या किसी अवार्ड का ही हिस्सा बने, लेकिन रिश्तों की ऐसी संवेदना से ही तो हम नए साल में नया हिंदुस्तान गढ़ेंगे।

बीते साल में रीवा जिले में घूमते हुए एक ऐसे गुरूजी से मिला जो अपने घर से ही स्कूल चला रहे हैं। 35 घरों वाले इस बगरि‍हा गांव के बच्चों को स्कूल के लिए पांच किमी तक जाना पड़ता था। वह भी जंगलों के रास्ते से होते हुए। सरकार ने गांव वालों की मांग पर वहां स्कूल को तो स्वीकृति दे दी, पर एक छोटी सी तकनीकी समस्या से यहां मूलभूत सुविधाएं ​भी नहीं मिल पा रहीं। न चाक, न ब्लैकबोर्ड, न बैठने की व्यवस्था। बीते तीन सालों में मास्टरजी रामभजन कोल सीएम हेल्पलाइन से लेकर तमाम जगहों पर दरख्वास्त दे चुके। एक सरकारी प्रायमरी स्कूल को वह घर के आंगन से ही चलाकर वह गांव के बीसियों बच्चों के सपनों को टूटने से बचा रहे हैं। हो सकता है कभी उनकी बात सरकार के कान तक पहुंच जाए और सरकारी स्कूल को सुविधाएं मिलना शुरू हो जाए।

ऐसी बीसियों कहानियां हमारे आसपास ही मिलतीगुजरती हैं जो कतई बहुत बड़ी नहीं होतीं, इतनी बड़ी भी नहीं जिनपर कोई एंकर स्टोरी ही लिख सके, या कोई दस मिनट के बुलेटिन में ही उनको जगह दे दे, दरअसल तो उनका मकसद भी ऐसी किसी स्टोरी बनने के लिए नहीं होता, वह एक हिंदुस्तान बना रही होती हैं, अपनेअपने स्तर पर, वह समाज की छोटीछोटी जिम्मेदारियां हैं, ईमानदाराना कोशिशें हैं, सोचना तो उन्हें है जिन्हें समाज ने बहुत बड़ीबड़ी जिम्मेदारियां दे रखी हैं।
आईये इस नए साल में ऐसी ही कहानियों को हम अपनेअपने स्तर पर दोगुनाचौगुनासौगुना करके रख दें, एक नया हिंदुस्तान गढ़ दें, जहां कोई नफरत नहीं, सिर्फ प्रेम के किस्से होंगे।

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ