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क्‍या हम बच्‍चों को उनके सपनों की दुनि‍या सौंप रहे हैं


राकेश कुमार मालवीय

कि‍सी को फि‍ल्‍म स्‍टार बनना है ! कि‍सी को खि‍लाड़ी बनना है ! कोई अच्‍छा प्रोफेशनल बनना चाहता है ! कि‍सी की कुछ और तमन्‍ना हो सकती है, लेकि‍न यदि‍ इस सवाल के जवाब में आपको सुनने को मि‍ले कि‍ वह तो सबसे पहले एक अच्‍छा इंसान बनना चाहते हैं, तो नि‍श्‍चि‍त ही आप आने वाले समय में एक बेहतर दुनि‍या, बेहतर समाज का सपना संजो सकते हैं।

आप यह सोच सकते हैं कि‍ मूल्‍यों के दि‍न-प्रति‍दि‍न पतन का जो दौर हम लगातार देख रहे हैं वह रूकेगा और दरकते समाज को एक सहारा जरूर मि‍लेगा। यह आशाभरी बात नि‍कल कर सामने आई है बच्‍चों की आवाज नामक एक अध्‍ययन में। इस अध्‍ययन को युनि‍सेफ के सहयोग से मध्‍यप्रदेश की दस संस्‍थाओं ने 2500 बच्‍चों के बीच कि‍या है। इस अध्‍ययन के नतीजे हाल ही में जारी कि‍ए गए हैं, जो बेहद दि‍लचस्‍प और समाज को आईना दि‍खाने वाले हैं।  

अध्‍ययन में एक सवाल यह भी था कि‍ बच्‍चे क्‍या बनना चाहते हैं ? इस सवाल के जवाब में 49 प्रति‍शत बच्‍चों ने कहा कि‍ वह एक अच्‍छा इंसान बनना चाहते हैं। 21 फीसदी बच्‍चों ने जवाब दि‍या कि‍ वह अच्‍छा प्रोफेशनल बनना चाहते हैं, (अच्‍छा प्रोफेशनल से आशय वकील, इंजीनि‍यर, डॉक्‍टर या कोई भी ऐसा पेशा जि‍ससे वह अपने कैरि‍यर को संवार सकें।) 9 प्रति‍शत बच्‍चों ने बताया कि‍ वह एक अमीर इंसान बनना चाहते हैं। यह सवाल करते हुए यह सोचा जा सकता है कि‍ ज्‍यादा बच्‍चे अमीर इंसान बनने का चयन करेंगे।

केवल 2 प्रति‍शत बच्‍चों का सपना है कि‍ वह कोई फि‍ल्‍मी कलाकार बनें, और केवल 7 प्रति‍शत ने कहा कि‍ वह खि‍लाड़ी बनना चाहते हैं। आप यह भी देखि‍ए कि‍ सभी धर्मों के सम्‍मान करने के सवाल पर 78 प्रतीक्षा बच्‍चे कहते हैं कि‍ हां सभी धमों का सम्‍मान करना चाहि‍ए और 65 प्रति‍शत बच्‍चों को कि‍सी भी जाति‍ के व्‍यक्‍ति‍ के साथ भोजन करने पर भी कोई हर्ज नहीं है।

पर क्‍या हम बच्‍चों के लायक दुनि‍या बना पाने में सफल हुए हैं। हमने तमाम दावे कि‍ए, तमाम घोषणाएं की, समझौतों पर दस्‍तख्‍त कि‍ए, लेकि‍न बच्‍चों के अधि‍कारों को समग्रता से पूरा करने में वि‍फल साबि‍त हुए हैं, इसीलि‍ए देश में तमाम कठोर कानूनों के बावजूद बच्‍चे मजदूरी में हैं, बच्‍चों के बाल वि‍वाह हो जाते हैं, बच्‍चों के साथ अपराध की परि‍स्‍थिि‍तयां बनती हैं, जो एक भयावह चेहरे को हमारे सामने लाती हैं, केवल सरकार के ही स्‍तर पर नहीं, यहां तक कि‍ हमारे घर-परि‍वार, आस- पडोस, समाज तक का एक ऐसा चेहरा सामने आता है, जि‍से देखकर हमें हैरानी होती है।

हम ज्‍यादातर मामलों में सबसे पहले सरकार को कठघरे में खडा कर देते हैं, वह सबसे आसान होता है, अपनी जि‍म्‍मेदारि‍यों से बचने का इससे आसान रास्‍ता क्‍या हो सकता है, लेकि‍न देखि‍ए कि‍ हमारे अपने घरों में भी बच्‍चों के लि‍ए कैसा वातावरण है, क्‍या घर के परि‍वेश में भी उनके समग्र वि‍कास को सुनि‍श्‍चत कि‍या जा रहा है।

जब बाल अधि‍कारों की बात होती है तो उसमें एक बि‍दु सहभागि‍ता का होता है। इस बात को लगातार उठाया ही जाता रहा है कि‍ बच्‍चों का नीति‍-निर्धारण या ऐसी ही दूसरी प्रक्रि‍याओं में कोई सहभागि‍ता नहीं होती, पर क्‍या परि‍वार के निर्णयों में भी बच्‍चे शामि‍ल होते हैं, इस सवाल के जवाब में 28 फीसदी बच्‍चों ने कहा कि‍ उनकी घर के निर्णयों में कोई सहभागि‍ता नहीं होती, 36 फीसदी बच्‍चों ने जवाब दि‍या कि‍ कभी-कभी ही उन्‍हें घर के निर्णयों में शामि‍ल कि‍या जाता है, और 36 प्रति‍शत घरों में बच्‍चों को भागीदार बनाया जाता है। जब घरों में ही बच्‍चे कि‍सी निर्णय में भागीदार नहीं हैं, तो सरकार की नीति‍यों का स्‍वरूप तो और भी वि‍शाल हो जाता है। बच्‍चों को तवज्‍जो देना एक तरह के व्‍यवहार का मसला है, इसे समग्रता में बदले बि‍ना तस्‍वीर बदलना नामुमकि‍न है।

यह अध्‍ययन यह भी बताता है कि‍ बच्‍चे तो अच्‍छा इंसान बनना चाहते हैं, लेकि‍न हम बड़े उनके लायक नहीं बन पा रहे हैं, क्‍योंकि‍ जब बच्‍चे स्‍कूल जाते हैं तो उन्‍हें सबसे ज्‍यादा डर रास्‍ते में खड़े हुए शराबि‍यों से लगता है। उन्हें अपने स्‍कूल बस-कंडक्‍टर से भी डर लगता है। इस डर को हम कैसे दूर करेंगे, बच्‍चे एक बेहद खूबसूरत दुनि‍या का ख्‍वाब बुनते हैं, पर क्‍या हम उन्‍हें एक ऐसी बुनि‍याद सौंप रहे हैं, जि‍सपर वह अपने सपनों की इमारत को खड़ा कर पाएं।


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1 टिप्पणियाँ

Anil Sahu ने कहा…
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