- मेरे गांव में पहले छह बढ़ईयों के घर थे। छह घर अब भी हैं। बस उनका काम धंधा बदल गया है। अब वह क्या काम करते हैं ? हल—बक्खर तो नहीं बनाते। कोई बनवाता भी नहीं। उनके धंधे में अब ज्यादा से ज्यादा चौखट दरवाजे सरीखे काम बचे हैं। खेती के काम से बढ़ईयों का नाता टूट चुका है।
- मेरे गांव में छह—सात घर लोहार के घर थे। नन्हे कक्का के घर बक्खर की पांस पंजवाने जाते थे, बैलगाड़ी के पहिए पर पाठा चढ़ा करती थी। उस लोहे को लाल-लाल गरम होता देख्, और पहिए पर चढ़ाने का कमाल करने को देखने में क्या मजा आता था। दांतरे में धार लगवाने का काम बाई हमसे ही करवात थी।
मेरे बेटा यह सब नहीं देख पाया ! मुझे नहीं पता अब लोहार अपना घर कैसे
चलाते हैं ?
- मेरे गांव में कुम्हारों के दस पंद्रह घर हैं। पहले उनके बिना शादी नहीं हुआ करती थी। मंडप बनते थे और मंडप के आगे कुम्हारन बुआ बेदी भरा करते थे। मैंने आखिरी बार मटकों की बेदी कब देखी थी, याद नहीं ! अब हम स्टील-पीतल के रेडीमेड बर्तनों से मंडप सजाते हैं, सजाते क्या हैं, औपचारिकता पूरी कर देते हैं। अब कुम्हारों को मटटी ही नहीं मिलती। बर्तन बनाएं तो कैसे ?
- मेरे गांव के मजदूर गायब हैं ! पहले हर गांव की अपनी मनरेगा थी। कोई गणित लगाकर बताए, चैत के दिनों में कितने लोगों को रोजगार मिलता था, वह हारवेस्टर कहां छीनकर ले गई ? अब सरकार मनरेगा चलाकर हमें अहसान जताती है। देखो, हमने कितना रोजगार पैदा कर दिया। क्या कमाल है साहब, बीमारी भी देती हो, और मल्हम भी।
·
- मुझे कोई यह बताए कि किसान के घर में गेंहूं, चना, सोयाबीन और धान के अलावा क्या है ? वह अपने जरूरत की कितनी चीजें खेत में उगा रहा है, और कितनी बाजार से ला रहा है। बुजुर्गों से पूछ ले कि पहले कितनी चीजें लाया करते थे।
- अब गांव में गोधुलि नहीं होती, जब गाय, भैंस और दूसरे जानवर ही नहीं, तो कहां से गलियों से धूल उड़ेगी, अब गांव में धूल ही नहीं तो धूल कहां से उड़ेगी ? धूल कहीं दब गई है, गांव की आत्मा भी उसी सीमेंट के घोल में समा गई है।
- कल पोला अमाउस हथी। सई सई बतईयो भैया ! कित्ते घरों में बैलों की पूजा भई ? और कित्ते घरों में केवल मट्टी के बैलों की पूजा भई! गाय की पूजा करने वाले अपने समाज में बैल गायब हैं गांव से बैल भी गायब है ।
- हमने बहुत तरक्की कर ली साहब। लेकिन क्या गांव गायब नहीं हो गया। यह जो गांव का तानाबाना था, वह विकास में कहां चला गया, और क्या यह विकास सभी के लिए आया।
यदि विकास आ गया तो हमारा जिला जो देश
का सबसे संपन्न जिला माना जाता है, वह कुपोषण के मामले में नंबर 1 पर क्यों है ?
यह वह जिला क्यों है जहां पर कुपोषण
दूर करने के लिए सबसे पहला प्रोजेक्ट शक्तिमान चलाया जाता है।
क्या अपना जिला भी किसान आत्महत्याओं
से बचा हुआ है ?
अब से सौ बरस पहले माखनलाल चतुर्वेदी ने एक
आलेख लिखा था किसानों का सवाल। यह आलेख उन्होंने अंग्रेजों के जमाने में लिख था।
अंग्रेजों का जमाना गुजरे सत्तर साल हो गए। एक पीढ़ी बुढा गई है। अब तो इने—गिने—चुन हैं जिन्होंने आजादी आते देखी। हम
सचमुच आजादी आते देखना चाहते हैं, पर जाने क्यों वह आती ही नहीं है। आजादी आने का मतलब केवल झंडा लहरा
देना तो नहीं होता।
मराठी लेखक और समाजसेवक अन्ना भाई साठे ने कहा
था
यह आजादी झूठी है,
इस देश की जनता भूखी है
माखनलाल चतुर्वेदी वही परिस्थितियां बताते हैं
जो आज के वक्त भी मौजूद हैं। वह लिखते है
यह सब इसलिए नहीं है कि किसान अज्ञान
हैं, इसलिए
कि किसान शक्तिहीन हैं, इसलिए कि उसे पता नहीं है कि संसार में
जन्म लेकर आने के बाद उसका संकट उठाना और कुत्ते बिल्लियों की तरह जीवन बिताना और
अनाज पैदा करके संसार के राक्षसों का पोषण करना ही नहीं है। उसे नहीं मालूम कि
धनिक तब तक जिंदा है राज्य तब तक कायम है। उसे नहीं मालूम कि धनिक तब तक जिंदा है, राज्य तब तक कायम है, यो सारी कौसिलें तब तक जिंदा है राज्य
तक वह अनाज उपजाता है, और मालगुजारी देता है।
जिस दिन वह इंकार कर दे, उस दिन समस्त संसार में महाप्रलय मच जाएगा। उसे
नहीं मालूम कि संसार का ज्ञान संसार के अधिकार और संसार की ताकत सने छीनकर रखी है
और क्यों छीनकर रखी है।
वह नहीं जानता कि जिस दिन अज्ञान इंकार
कर उठेगा, उस दिन शासन के ठेकेदार स्कूल फिसल पड़ेंगे, कॉलेज नष्ट हो जाएंगे उसे नहीं मालूम
कि जिस दिन उसका खून चूसने के लिए न होगा, उस दिन देश में यह उजाला यह कोलाहल न
होगा। फौज और पुलिस वजीर और वाइसराय, सब कछ किसान की गाढ़ी कमाई के खेल हैं।
बात इतनी ही है कि किसान इस बात को जानता नहीं है।
अंत में वह लिखते हैं कि
किसानों के बडप्पन के झूठे गीत गाकर
उसका मन प्रसन्न करें या उन्हें तिनके के समान कमजोर समझकर यह महान तत्व भूल जाएं
कि हजारों तिनके के मेल से एक ऐसा रिस्सा तैयार हो सकता है जो एक मदांध हाथी को
बांध सके।
2014 के
बाद यह मदांध हाथी मतवाला भी हो गया है। पिछले बीस सालों में यह हाथी बाजार का
गुलाम हो गया है। पिछले बीस सालों में यह हाथी कॉरपोेरेट के आगे सूंड उठाकर खड़ा
हो गया है। पिछले बीस सालों में इस बूढ़े हाथी ने ऐसे घुटने टेके हैं, जिसे खड़ा होने में सालो—साल लगेंगे। हो सकता है कि वह कभी उठ ही नहीं पाए।
छह
सात किसान को मारकर भी सरकार स्वर्णिम मध्यप्रदेश बनाने में जुटी है। अब आप तय कर
लीजिए, वह किसका स्वर्णिम मध्यप्रदेश किसके
लिए देश बना रही है। मुझे किसान और किसानी तो नहीं दिखते। अब तय आपको करना है।
इसका उपाय कहीं बाहर से नहीं आएगा। इस अहंकार का इलाज हमको ही करना होगा।
दोस्तों यह कठिन वक्त है। मदांध हाथी का नशा और
बढ़ गया है। यह नशा इतना बढ़ गया है कि अब तो किसी की बात सुनी नहीं जा रही। जो
अपने हक मांग रहे हैं, उनको जेल में डाल दिया जा रहा है। आपको पता है चालीस हजार लोगों को
बड़वानी और धार जिले से बिना पुनर्वास के डुबोया जा रहा है। उनकी आह लगी है जो
बारिश भी नहीं हो रही। नर्मदा अपने लोगों को डुबो भी कैसे दे। नर्मदा और उसके
लोगों को बचाने के लिए अपना पूरा जीवन लगा देनेे वाली नर्मदा को जेल में डाल रखा
है। वह सत्तरवें स्वतंत्रता दिवस पर जेल पर थी। मैं इसे आजाद भारत की एक और
त्रासदी कहूंगा।
मेरी
एक कविता पढने की अनुमति चाहता हूं
मेधा
जेल में हैं
इस बात से शायद कोई
ज्यादा फर्क नहीं पड़ता कि
आजादी के दिन कौन कहां था ?
किसने कहां झंडा फहराया
दी सलामी, बांटी खुशियां
पिकनिक पर गया कोई
या असम के दूर—दराज के इलाकों में
घुटने—घुटने पानी में फहरा दिया तिरंगा
क्या—क्या बातें की गई
लाल किले की प्राचाीर से
गिनवा दिए गए आंकड़े
मदरसों से बुलवा ली गई
शान से लहराते तिरंगे की तस्वीरें
मोबाइल स्क्रीन पर
मिनट—दर—मिनट आते संदेश
टेलीविजन पर
धोनी और तेंदूलकर की वीर गाथाएं
हां,
कि इससे ज्यादा कोई फर्क नहीं पड़ता।
फर्क पड़ता है
सत्तर साल की बूढ़ी आजादी के दिन
मेधा पाटकर जेल में थी,
हां,
फर्क पड़ता है कि
अपने फौलादी साथियों के साथ
हकों की आवाज मेधा जेल में हैं
ज्यादा फर्क नहीं पड़ता कि
आजादी के दिन कौन कहां था ?
किसने कहां झंडा फहराया
दी सलामी, बांटी खुशियां
पिकनिक पर गया कोई
या असम के दूर—दराज के इलाकों में
घुटने—घुटने पानी में फहरा दिया तिरंगा
क्या—क्या बातें की गई
लाल किले की प्राचाीर से
गिनवा दिए गए आंकड़े
मदरसों से बुलवा ली गई
शान से लहराते तिरंगे की तस्वीरें
मोबाइल स्क्रीन पर
मिनट—दर—मिनट आते संदेश
टेलीविजन पर
धोनी और तेंदूलकर की वीर गाथाएं
हां,
कि इससे ज्यादा कोई फर्क नहीं पड़ता।
फर्क पड़ता है
सत्तर साल की बूढ़ी आजादी के दिन
मेधा पाटकर जेल में थी,
हां,
फर्क पड़ता है कि
अपने फौलादी साथियों के साथ
हकों की आवाज मेधा जेल में हैं
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मैं हरिशंकर परसाई की जन्मभूमि से यह सवाल
करना चाहता हूं कि किसानों की समस्या पर साहित्य चुप क्यों है। प्रेमचंद जो कहानियों
में रच रहे थे, भवानी जो कविताओं में कह रहे थे, परसाई जो व्यंग्य में समाज की व्यथा कह
रहे थे, माखनलाल जिस सहजता से किसानों की बात
तीखे अंदाज में कहते थे, तो क्या आज के शीर्ष साहित्य के
केन्द्र में किसान, किसानी और गांव हैं। मीडिया इस सवाल पर
पहले से कठघरे में है, मीडिया पर तमाम तरह के दबाव हैं, और अब वह निश्चित रूप से कॉरपोरेट
ताकतों की गिरफत में हैं,
पर साहित्य जब अपने आप में इतनी बड़ी
क्रांति कर सकता है कि रामायण देश के हर गांव में गाई, सुनाई, बताई जाती है,
उससे बड़ा
लोक साहित्य कोई और है भला, ऐसी क्रांति कर देने वाला साहित्य इस वक्त क्या कर रहा है। उन
पर कौन सा कॉरपोरेट का दबाव है, क्यों
वह तुलसी की रामायण की तरह अब कोई क्रांति क्यों नहीं कर देता, क्यों वह कबीर और रहीम के दोहों की तरह
अब सामने नहीं आता, क्यों कोई परसाई की तरह समाज में झनझनी
पैदा नहीं कर देता।
आज परसाई की सरजमीं से समाज में बैचेनी पैदा कर देने वाली उनकी ही एक
रचना देखिए, यह उन्होंने किसानों पर लिखी थी
सरकार
ने घोषणा की कि हम अधिक अन्न पैदा करेंगे और एक साल में खाद्य में आत्मनिर्भर हो
जाएँगे।
दूसरे
दिन कागज के कारखानों को दस लाख एकड़ कागज का आर्डर दे दिया गया। जब कागज आ गया, तो उसकी फाइलें बना दी गईं।
प्रधानमंत्री के सचिवालय से फाइल खाद्य विभाग को भेजी गई। खाद्य विभाग ने उस पर
लिख दिया कि इस फाइल से कितना अनाज पैदा होना है और अर्थ विभाग को भेज दिया।
अर्थ
विभाग में फाइल के साथ नोट नत्थी किए गए और उसे कृषि विभाग भेज दिया गया। कृषि
विभाग में उसमें बीज और खाद डाल दिए गए और उसे बिजली विभाग को भेज दिया। बिजली
विभाग ने उसमें बिजली लगाई और उसे सिंचाई विभाग को भेज दिया गया।
अब
यह फाइल गृह विभाग को भेज दी गई। गृह विभाग विभाग ने उसे एक सिपाही को सौंपा और
पुलिस की निगरानी में वह फाइल राजधानी से लेकर तहसील तक के दफ्तरों में ले जाई गई।
हर दफ्तर में फाइल की आरती करके उसे दूसरे दफ्तर में भेज दिया जाता।
जब
फाइल सब दफ्तर घूम चुकी तब उसे पकी जानकर फूड कार्पोरेशन के दफ्तर में भेज दिया
गया और उस पर लिख दिया गया कि इसकी फसल काट ली जाए। इस तरह दस लाख एकड़ कागज की
फाइलों की फसल पककर फूड कार्पोरेशन के पास पहुँच गई।
एक
दिन एक किसान सरकार से मिला और उसने कहा - 'हुजूर हम किसानों को आप जमीन, पानी और बीज दिला दीजिए और अपने अफसरों
से हमारी रक्षा कीजिए, तो हम देश के लिए पूरा अनाज पैदा कर
देंगे।'
सरकारी
प्रवक्ता ने जवाब दिया - 'अन्न की पैदावार के लिए किसान की अब
जरूरत नहीं है। हम दस लाख एकड़ कागज पर अन्न पैदा कर रहे हैं।'
कुछ दिनों बाद सरकार ने बयान दिया - 'इस साल तो संभव नहीं हो सका, पर आगामी साल हम जरूर खाद्य में
आत्मनिर्भर हो जाएँगे।' और उसी दिन बीस लाख एकड़ कागज का ऑर्डर
और दे दिया गया।
मध्यप्रदेश
सरकार भी ऐसे ही आंकडों का खेल करके पिछले चार-पांच साल से कर्मण अवार्ड प्राप्त
करने का कमाल कर रही है।
मैं
किसान भाईयों से भी पूछना चाहता हूं कि
आपने
बढ़ईयों को नहीं बचाया, आपने कुम्हारों को नहीं बचाया, आपने लोहारों को नहीं बचाया, आपने मजदूरों को नहीं बचाया, आपने चैतुओं को नहीं बचाया, आपने नदियों को नहीं बताया, आपने तालाबों को नहीं बचाया, आपने देशी बीजों को नहीं बचाया, आपने बैलों को नहीं बचाया, आपने गोबर की खाद और गुमातर को नहीं
बचाया, आपने गोधूली को नहीं बचाया, आपने गांव में बजते डंडो को नहीं बचाया, आपने गांवों को नहीं बचाया, अब आप खुद खतरे में हैं। आपको भी कोई
क्यों बचाएगा, अब बारी आपकी है।
आपको
कोई बचाने नहीं आएगा, आपको खुद अपने आप बचना होगा। बचना है
तो आईये और तिनका—तिनका जोड़कर एक ऐसा मोटा मजबूत रस्सा
बनाईये जो इस मदांध हाथी को बस में कर सके।
राकेश कुमार मालवीय
ग्राम हिरनखेडा,
तहसील सिवनी मालवा
जिला होशंगाबाद,
मध्यप्रदेश
हरिशंकर परसाई के जन्मदिवस पर जमानी
में आयोजित कार्यक्रम के लिए भाषण 22 अगस्त 2017
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इस देश की जनता भूखी है