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स्मृति: खुद भी उतने ही खरे, जितने कि उनके तालाब




Anupam Mishra in Kesla Media Conclave: Pic Gagan Nayar
बचपन से जिन कुछ बातों पर हम गांव के दोस्त इतराते थे, उनमें एक यह कि हमारे गांव में एक भारतीय आत्मा माखनलाल चतुर्वेदी ने गुरूकुल ‘सेवा सदन’ स्थापित किया था। जिसे बचपन से ‘सौराज’ सुनते आए, बहुत बाद में यह समझ आया कि यह ‘स्वराज’ होतेहोते ‘सौराज’ हो गया, वह इसलिए कि आजादी की गुप्त बैठकें यहां क्रांतिकारी किया करते थे। 
 
इतराने का दूसरा बहाना यह कि गांव से तेरह किलोमीटर की दूरी पर सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई का जन्म हुआ। पाठ्यपुस्तकों में जब लेखक परिचय पढ़ाया जाता, उसमें यह पढ़कर बहुत अच्छा लगता कि अरे यह तो अपने बाजू का ही गांव ‘जमानी’ है।

तीसरी बात यह भी कि हमारे ही गांव से पंद्रह बीस किलोमीटर की दूरी पर नर्मदा किनारे एक और छोटा सा गांव है टिगरिया, जिसे हम सतपुड़ा के घने जंगल वाले भवानी प्रसाद मिश्र के गांव से जानते हैं,  इसलिए भी जानते हैं क्योंकि यह गांव ‘आज भी खरे हैं तालाब वाले’ अनुपम मिश्र से भी जुड़ा। वह वहां पैदा तो नहीं हुए, लेकिन हर हिंदुस्तानी का एक गांव तो होता ही है। अनुपम जी ने हिन्दुस्तान के हजारों गांवों को अपना बनाया। अपने काम की अमि‍ट छाप छोडी। वह हमारे बीच अब नहीं हैं। लंबे समय से कैंसर से लड्ते हुए भी अपना काम कर रहे थे। 

न तो उस वक्त पत्रकारिता की कोई समझ थी, साहित्य अपने लिए उतना ही था जितना कि हिंदी की किताबों में पढ़ रहे थे, लेकिन अपने आसपास तीन-तीन सर्वश्रेष्ठ साहित्यिक विभूतियों का जन्म गर्व करने का एक मौका तो देता है, बिना मिलेदेखे ही। वक्त ने ‘मन्ना’ के योग्य बेटे अनुपमजी के साथ थोड़ा बहुत समय गुजारनेबातचीत करने और सीखने का मौका जरूर दिया, ऐसे वक्त में जबकि हमारे पास आदर्शों का बड़ा संकट है, वह हमें रोशनी दिखाते थे। ‘मन्ना’ के जीवन आदर्शों का विस्तार अनुपम थे। 

वैसे अनुपमजी को पहली बार ग्राम सेवा समिति में सुनने को मिला। होशंगाबाद में यह गांधीवादी संस्था उस जमाने में बनी थी, जब अनुपमजी ने प्राइमरी स्कूल में दाखिला भी नहीं लिया होगा। इस संस्था से भवानी भाई,  गांधीवादी बनवारीलाल चौधरी आदि का जुड़ाव बना था। सत्तर के दशक में जब तवा बांध तैयार हुआ और उसने पूरे जिले में दलदल की भयावह समस्या पैदा कर दी तब बनवारी लाल चौधरी जी ने देश में पहली बार बड़े बांधों के खतरों से आगाह कराते हुए मिट्टी बचाओ आंदोलन शुरू किया था। इसमें अनुपम मि‍श्र की सक्रि‍य भागीदारी थी। 

Anupam Mishra's Book on Mitti Bachao Abhiyan
बांधों के विरोध में यह नर्मदा बचाओ आंदोलन से भी पहले का एक अभियान था, जिसने पर्यावरणीय मसलों पर यह आवाज उठाई थी। आज भी खरे हैं तालाब की लाखों कॉपि‍यों को घर-घर पहुंचाने वाली इस करि‍श्‍माई लेखक की पहली कि‍ताब इसी अभि‍यान की पुस्‍ति‍का थी। इसी जुड़ाव के चलते भवानी भाई और उनके पिता भी की याद में हर साल होने वाले कार्यक्रम में आते रहे। वह हमेशा अपने से लगे।

इस बात पर कोई विवाद ही नहीं है कि अपने काम के दायरे को सर्वश्रेष्ठ स्तर पर पहुंचाने के बावजूद इतनी सरलता प्रायः कम ही देखने को मिलती है। कठिन लिखना आसान है, लेकिन आसान लिखना कठिन है की परिभाषा को किसी के व्यक्तिव के मामले में लागू किया जा सकता है, लेकिन वह सचमुच आसान थे। इतने कि यदि उन्हें बिना दाढ़ी मूंछों वाला संत कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी, उन्हें करीब से जानने वाले समझते हैं क्योंकि उनके मुंह से किसी की निंदा सुनना मुश्किल ही था। हां, वि‍षय और व्‍यवहारों पर वह जरूर खरा बोलते थे।

जिस वक्त में रायपुर में रहकर एक मीडिया संस्थान में काम कर रहा था, उनका रायपुर आना हुआ। उनसे मैंने एक मीडिया प्रतिनिधि के रूप में ही साक्षात्कार के लिए समय लिया था। तय वक्त पर वीआईपी गेस्ट हाउस पहुंचा, उस वक्त वह भाजपा नेता नंदकुमार साय से लंबी चर्चा कर रहे थे। चर्चा कुछ ज्यादा लंबी हो गई। मेरा नंबर आया तो एक दो सवालों के बाद मेरा अपना गांव का परिचय निकल आया क्योंकि दोपक्षीय संवाद का यह पहला मौका था उनके साथ। तब तो उन्होंने मुझे घर का मोड़ा बताकर मेरा इंटरव्यू टाल ही दिया और अधिकारपूर्वक कहा कि अपन दोपहर में बात करते हैं, उन्हें कार्यक्रम के लिए देर भी हो रही थी। यह उनका एक सहज और आत्मीय भाव था। 

बाद में वह इंटरव्यू नहीं हो सका, लेकिन मैं अवाक रह गया जब दस दिन बाद उन्होंने फोन करके कहा कि अपनी तो उस दिन पूरी बात ही नहीं हो पाई। ऐसा हम कितने लोग कर पाते हैं। हम लोग की जेब में अब महंगे फोन तो हैं, इंटरनेट का फ्री जीओ डेटा पैक भी है, पर संवाद के मामले में तो हम कंगाल हुए जा रहे हैं।

वह जेब में बिना मोबाइल फोन डाले भी खूब संवाद कर लेते थे, सबके साथ संवाद कर लेते थे, भैयाभैया की भाषा में संवाद कर लेते थे। ऐसा नहीं था कि उन्हें तकनीक से परहेज था। कठिन दौर की फोटोग्राफी कर उन्होंने अपने पानी के काम में खूब प्रयोग किया, पानी के काम को दूरदूर तक पहुंचाने, उसे लोगों तक समझाने में वह अर्से से अपने स्लाइड शो का इस्तेमाल करते रहे, लेकिन सोशलमीडिया के भेड़ियाधसान से बचते हुए उन्होंने संवाद की एक समृद्ध परंपरा को हमारे लिए इस दौर में भी दिखाकर गए हैं।

आज लगातार यात्रा करते हुए वह याद इसलिए भी आते रहे क्योंकि उनसे दिल के बहुत करीब से जुड़े सर्वोदय प्रेस सर्विस के संपादक चिन्मय मिश्र के साथ में यात्रा करता रहा। जिनसे हर दस दिनों में वह घंटों संवाद किया करते थे। सर्वोदय प्रेस सर्विस देश की सबसे पुरानी समाचार और विचार सेवा है, जिसे विनोबा भावे ने एक रूपए का दान देकर शुरू करवाया था। संसाधनों के अभाव में यह आज भी निरंतर है, अनुपम जैसे ही कुछ लोगों के कारण। उन्होंने खुद भी तो अपने को वैसा ही ढाला था। दिल्ली जैसे क्रूर शहर में बारह हजार रूपए की पगार पर कौन कितने दिन जिंदा रह पाता है।

Anupam Mishra : Pic By Gagan Nayar.
अनुपम हमारे लिए बहुत कुछ छोड़ गए हैं। एक जीवनशैली, एक लेखनशैली, एक विचारशैली, एक व्यक्तित्वशैली। वह हमें इस दौर में भी कभी निराश नहीं करते। हमेशा उम्मीद बंधाते हैं। जैसे कि लोगों ने उनकी किताब पढ़कर लाखों तालाबों के पाल बांध दिए। उनमें एक तालाब मेरे गांव हि‍रनखेडा का भी है, वह नया नहीं है, हजारों साल पुराना गोमुखी तालाब है, जिसके बारे में वह खुद भी बताते थे। कहींकहीं बातचीत में उसका जिक्र भी करते। तालाब हमें आत्मनिर्भरता देता है, अपनी आजादी देता है, अपने पानी के साथ अपना जीवन देता है, समृद्धता देता है। हमारे अपने तालाबों का बचना, अपनी आत्मनिर्भरता और अपनी अस्मिता का बचना बेहद जरूरी है इस दौर में। 

उनके जीवन का आकाश बहुत बड़ा था, उसका एक छोटा सा टुकड़ा हमें मिल पाया। यह छोटा भी विशाल है। वह हमेशा हमारी प्रेरणाओं में रहेंगे। नमन।

 (यह ब्लॉग एनडीटीवी खबर पर भी प्रकाशित हुआ है।)

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