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- राकेश कुमार मालवीय
कुछ परिस्थितियां हमें दिखाई नहीं देती,
कुछ
देखना नहीं चाहते, और कुछ के इतने आदी हो जाते हैं कि वह हमें
असामान्य दिखाई ही नहीं देती। उन्हें हम सामाजिक स्वीकृति देकर अपने जीवन का एक
हिस्सा मान बैठते हैं भले ही वह गड़बड़ क्यों न हो। जब कोई गड़बड़ी हम स्वीकार
नहीं करते हैं तो स्वाभाविक रूप से उसे सुधारने की कोशिशें भी रस्मअदायगी की तरह
ही होती हैं। उनकी याद हमें किसी खास दिन पर आती है या फिर कोई बहुत बड़ी घटना होने
पर। बाल मजदूरी का मुद्दा भी ऐसा ही है। वैसे बच्चों से जुड़े सारे मुद्दों के
हालात ही ऐसे हैं जिन पर समाज में बहुत कम संवाद हैं, वह राजनीतिक रूप
से हाशिए पर हैं, लेकिन बाल मजदूरी का मुद्दा तो ऐसा है जो दिखाई
देते हुए भी अनदेखा है। इसके तमाम उदाहरण देश के कोने—कोने से हमारे
सामने जब—तब आते हैं।
एक मिसाल लीजिए 18 जुलाई 2014 को
मध्यप्रदेश विधानसभा में सरकार से सवाल पूछा गया कि प्रदेश में कितने बाल श्रमिक
काम कर रहे हैं। जवाब सुनकर उस पर विश्वास कर पाना कठिन है। इस जवाब के मुताबिक
प्रदेश के केवल 11 जिलों में ही बच्चे किसी तरह की मजदूरी में लगे हुए हैं। अगली
जानकारी तो और हैरान कर देने वाली है। विधानसभा में पेश जानकारी के मुताबिक प्रदेश
में कुल बालश्रमिकों की संख्या केवल 108 है। क्या आप इस आंकड़े पर भरोसा करेंगे ?
यह सवाल किसी और राज्य की विधानसभा से भी आता तो जवाब इसी के आसपास होता क्योंकि
व्यवस्था ही नहीं समाज भी इसे नकारने के नजरिये से ही देखता है.
जनगणना के आंकड़े सबसे विश्वसनीय माने
जाते हैं. इनका संग्रह भी घर-घर जाकर होता है.
मध्यप्रदेश के जिन 11 जिलों में वह केवल 108 बाल मजदूर होना बता रही है उन्हीं जिलों में भारत की जनगणना 2011 के मुताबिक मुताबिक 1.66 लाख से ज्यादा
बालश्रमिक हैं। अकेले मप्र में कुल बाल श्रमिकों की संख्या तो 7 लाख है। लेकिन जब विधानसभा में जवाब देने की बारी आई तो
सरकार को केवल 108 बालश्रमिक ही नजर आए। मजे की बात यह है कि सरकार ने वर्ष 1997
से राज्य में बाल श्रमिकों का सर्वेक्षण ही नहीं करवाया है। आखिर पता कैसे चलेगा
कि राज्य में कितने बच्चे अपना बचपन छोड़ कर कचरा बीनने, ढाबों में काम करने, भीख मांगने, गाड़ियों की मरम्मत करने से लेकर खेतों
तक में काम कर रहे हैं।
केवल विधानसभा ही नहीं लोकसभा में भी
बालश्रमिक के मुद्दे पर सवाल के जवाब में सरकार ने कहा कि बालश्रमिकों की संख्या
में कमी आई है जबकि हकीकत यह है कि तमाम सरकारी उपायों, कानूनी प्रावधानों और
सरकारी-गैर सरकारी प्रयासों के बावजूद जमीनी स्थिति यह है कि देश के करीब आठ
फीसदी बच्चे अभी भी 5-14 साल की उम्र में मजदूरी करने पर मजबूर हैं। इनमें पांच
साल से नौ साल की उम्र के दो फीसदी और 10-14 साल के आयु समूह के 5.72 प्रतिशत बच्चे
शामिल हैं। इससे भी भयावह आंकड़ा यह है कि देश की श्रमिक आबादी के हर 100
कामगारों में तीन बच्चे हैं।
जनगणना के ही मुताबिक जब हम कामगार
लोगों की आंकड़े को पूरे देश के सन्दर्भ में देखते हैं तो स्थिति और भयावह नजर आती
है. भारत में 5 से 14 साल के बच्चों की कुल संख्या 25.96 करोड़
है. इनमें से 1.01 करोड़ बच्चे श्रम करते हैं, यानी कामगार की भूमिका में हैं। आंकड़ों से पता चलता है कि
5 से 9 साल की उम्र के 25.33 लाख बच्चे काम करते हैं. 10 से 14 वर्ष की
उम्र के 75.95 लाख बच्चे कामगार हैं। 1.01 करोड़ बच्चों में से 43.53 लाख बच्चे मुख्य कामगार के रूप में, 19 लाख बच्चे तीन माह के कामगार के रूप में और 38.75 लाख बच्चे 3 से 6 माह के लिए कामगार के रूप में
काम करते हैं। राज्यवार देखें तो उत्तरप्रदेश (21.76 लाख), बिहार (10.88 लाख ), राजस्थान (8.48 लाख), महाराष्ट्र (7.28 लाख) और मध्यप्रदेश
(7 लाख) समेत पांच प्रमुख राज्यों में 55.41 लाख बच्चे श्रम में लगे हुए हैं।
सोचिए, कि 5 से 9 साल
की उम्र क्या होती है। इस उम्र में बच्चों के ऊपर काम का बोझ विकास की निशानी है
या बर्बरता की। इस उम्र में तो बच्चा बच्चा स्कूल में प्रवेश लेकर तीसरी—चौथी
कक्षा तक पहुंचता है। जाहिर है काम के कारण उसका स्कूल तो छूट ही जाता है। ऐसे में
देश के भविष्य की क्या नींव रखी जाती है। देश में शिक्षा का अधिकार कानून के तहत
इन बच्चों का अधिकार है कि वह निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा हासिल करें। कैसा समाज
है कि इनको निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा की बजाय मजदूरी करवाकर पसीना बहा रहा है।
Published on Khabar NDTV
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