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देखिये, इन तथ्यों का जरा विश्लेषण कीजिये



आज मैं आपके सामने छोटे-छोटे कुछ तथ्य रखना चाहता हूँ. इन तथ्यों को आप खुद पढ़िए. विचार कीजिए. विश्लेषण कीजिये और सोचिये कि आपके आसपास क्या कुछ कैसे घट रहा है. यह तथ्य भले ही किसी एक राज्य (मध्यप्रदेश) से निकलकर आ रहे हों पर आप देश के जिस भी कोने से इस ब्लॉग का खटका दबा रहे हों पाएंगे कि हमारे ही आसपास के हैं. जहां हैं वहीँ से देखिये. हमारी सरकारी व्यवस्थाओं को हाल देखिये, देखिये कि कैसे ये जन कल्याण की बेहद महत्वपूर्ण व्यवस्थाएं नाकारा हो रही हैं या.....! इन्हें नाकारा बनाया जा रहा है ? इसकी जवाबदेही कौन लेगा ? यह केवल स्कूलों का हाल नहीं है. ऐसी तमाम व्यवस्थाओं का हाल ऐसा ही है अस्पताल से लेकर खेती किसानी तक.
इन तथ्यों को समझने से पहले यह जानना लाभकर होगा कि देश में शिक्षा जैसे विषय पर साल 2009 में शिक्षा का अधिकार कानून लाया जा सका। 

इस कानून के तहत शिक्षा को एक अधिकार के रूप में परि​भाषित किया गया और व्यवस्था को छह साल से 14 साल तक के बच्चों के लिए निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा के लिए कानूनी रूप से प्रतिबदृध किया गया। इस कानून की विस्तृत नियमावली है, जिसका पालन करना राज्य का कर्तव्य है। इस कानून के बाद होना यह चाहिए था कि शिक्षा की स्थिति और सुधरती, लेकिन इस संबंध में जो कुछ हुआ, वही आप आगे पढ़िएगा। हालांकि सरकार शिक्षा की गुणवत्ता के मूल्यांकन का कोई सरकारी स्त्रोत ही नहीं है, सिवाय कुद एनजीओ की रिपोर्ट के, जो देशव्यापी सर्वे कर बच्चों की शिक्षा की स्थिति की रिपोर्ट जारी करते हैं


 बहरहाल यह तथ्य देखिये जो कि मध्यप्रदेश के विभिन्न आधिकारिक स्रोतों से लिए गए हैं. 

·         2007—08 में सरकारी स्कूलों का नामांकन 70 प्रतिशत था, यह 2013- 14 में घटकर 64 प्रतिशत पर आ गया।
·         गैर सरकारी स्कूलों में इसी अवधि का नामांकन 30 प्रतिशत से बढ़कर 35 प्रतिशत पर आ गया है।

तो इसे क्या माना जाये, सरकारी स्कूल घटिया हो गए हैं, क्या गैर सरकारी स्कूल ही बेहतर हैं. क्या नामांकन घटने के नाम पर सरकारी स्कूलों को बंद कर दिया जाये, जैसा कि छत्तीसगढ़, राजस्थान में हो चुका है, और मध्यप्रदेश में किए जाने की ख़बरें आई थीं. सबसे बड़ा सवाल यह कि नामांकन बढाये जाने के लिए क्या ?
जबकि.... 
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 5283 स्कूलों में पीने के पानी की कोई सुविधा नहीं है।
·         13497 स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग टॉयलेट नहीं है।
·         15384 स्कूलों में किचन शेड नहीं है।
·         75015 स्कूलों में बाउंडीवॉल नहीं है।
·         45,326 स्कूलों में खेल का मैदान नहीं है।
·         42,988 क्लासरूम की आवश्यकता है।

यह सब कुछ नहीं है, और आसानी से इसके आधार पर हम इस व्यवस्था को ख़ारिजकर सकते हैं, लेकिन जो है, घिसट घिसट कर कर चल रहा है, वह सरकारी व्यवस्था में ही सबसे सस्ते तरीके से संभव है.  पर देखिये नीतियों को देखिये, प्रावधानों को देखिये और क्रियान्वयन को देखिये, बेहद दिलचस्प है कि जिस राज्य में क्लासरूम की कमी का रोना रो रहे हैं वहां.....
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 75,018 क्लासरूम अतिरिक्त हैं। जी हाँ 75 हजार 18.
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 प्रायमरी स्कूलों मं 22,359 क्लासरूम की आवश्यकता है उस पर 59,510 अतिरिक्त क्लासरूम हैं। अपर प्रायमरी स्कूल में 20,629 क्लासरूम की आवश्यकता है उस पर 15,508 अतिरिक्त क्लासरूम हैं।
एक और दूसरे पक्ष पर गौर कीजिये
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 मध्यप्रदेश के 4472 स्कूलों में में कोई भी टीचर नहीं है। यह कुल स्कूलों का 3.91 प्रतिशत है।
·         16 जिले ऐसे हैं जहां कि 50 से कम स्कूलों में टीचर नहीं है।
·         17 जिले ऐसे हैं जहां कि 51 से 100 स्कूलों में टीचर नहीं हैं।
·         17 जिले ऐसे भी हैं जहां कि 100 से अधिक स्कूलों में टीचर नहीं है।
·         केवल ग्वालियर जिले के दो स्कूल हैं जहां कि एक ही टीचर है।
·         कोई भी जिला ऐसा नहीं है जहां कि एक भी स्कूल बिना टीचर के नहीं है।

पर देखिये कि शिक्षा के अधिकार कानून के तहत ...
·         अकेले इंदौर में 362 शिक्षक अतिरिक्त जमे हैं
·         उसके बाजू के जिले देवास में 221 अतिरिक्त जमे हैं
·         भोपाल के नजदीक होशंगंबाद में 307 अतिरिक्त हैं,
·         रीवा जिले में भी 214 अतिरिक्त शिक्षक हैं, 

जबकि रीवा जिले में 142 स्कूल शिक्षक विहीन हैं. तो इसका क्या अर्थ निकालें, आखिर यह कैसे हो रहा है कि हमारे पास सब कुछ है, पर्याप्त नहीं है, जरुरत से भी ज्यादा है तो फिर कुछ इलाके, कुछ लोग ऐसे कैसे छूट जाते हैं या छोड़ दिए जाते हैं. इसके बाद हम कहते हैं कि संसाधन नहीं हैं. यदि ऐसा होता तो यह तथ्य ऐसे कैसे हैं ? कि कोई आए, कि बदल डाले, इस गडबड व्यवस्था को बदल डाले और ख़ारिज कर दे कि आपके यह सारे तथ्य गलत हैं.  
 
( यह सारे आंकड़े Unified District Information System For Education (U-DISE)  2014-15 की रिपोर्ट से लिए गए हैं, इन्हें जुलाई 2015 में जारी किया गया था )

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