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इन बच्चों ने क्या बिगाड़ा है, प्लीज इन्हें जीने दें

यह राजधानी है। कह सकते हैं कि यह प्रदेश की सबसे सुरक्षित जगह होगी। हर गली में विकास की रोशनी भी पहुंचती है और पुलिस की गाड़ियों का सायरन भी सुनाई देता है। मान सकते हैं कि ऐसे वातावरण में शहरवासी महफूज होंगे। लेकिन इसी राजधानी से अपराधों की ऐसी भयानक खबरें निकलकर आ रही हैं, जो दिल दहलाने के लिए काफी हैं। कुछ मिसालें लें।

पहला मामला : 17 सितम्बर,
राजधानी के कबीरनगर इलाके में दो बच्चियों को पुलिस ने उसकी सौतेली मां के जुल्मों से मुक्त कराया। नाजिया और मुस्कार की यह दोनों बच्चियों छह महीना पहले ही दिल्ली से यहां आई थीं। बाप ने दूसरी शादी की। सौतेली मां ने जितने जुल्म कर सकती थी, उससे ज्यादा ही किए। हाथ—पैर आखों तक को चिमटे से जलाया। मारा, पीटा। खाना उतना ही दिया जिससे यह जिंदा भर रह जातीं। आखिर मोहल्ले वालों की संवेदना जागी और एक एनजीओ की सहायता से आखिर उन्हें जुल्म से मुक्त कराया गया।

दूसरा मामला : 15 सितम्बर, 

 उरकुरा इलाके की राजकुमारी बाई ने पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराई कि उसकी बेटी का अपहरण हो गया है। पुलिस ने मामला दर्ज किया। पड़ताल की। शक की सुई उल्टी उसकी मां पर ही घूम गई। जब सख्ती से पूछा तो उसने स्वीकार कर लिया कि हत्या उसने ही की। हेमपुष्पा नाम की तीन माह की इस बच्ची की बॉडी अब तक नहीं मिल पाई है। राजकुमारी कभी कहती है उसने कुएं में फेंका, कभी कहती है तालाब में।

तीसरी घटना : 19 सितम्बर,
राजधानी के उरला इलाके में एक देवर ने अपनी भाभी की हत्या कर दी। साथ ही उसके बच्चे को मार डाला। इसलिए कि उसे पोलियो हो गया था। मां की मौत के बाद कौन उसकी देखभाल करेगा, इसलिए बच्चे को भी मरना पड़ा। हत्या इसलिए हुई कि महिला के कई पुरुषों के साथ अवैध संबंध थे।

तीनों ही घटनाओं में बच्चों की भूमिका पर गौर करें। उनका क्या कुसूर था। नाजिया और मुस्कान इसलिए पीड़ित थीं कि उनकी मां उन्हें छोड़कर असमय चली गयी और उनका लिंग स्त्री का था। हेमपुष्पा तो जीवन को समझ ही नहीं पाई क्योंकि वह केवल तीन साल की थी और एक दूसरा बालक इसलिए नहीं जी सका, क्योंकि उसे पोलियो हो गया था, वह विकलांग था।

हमारी देश की सरकार ने बच्चों के लिए कुछ समझौतों पर हस्ताक्षर किए थे। इन्हें बाल अधिकार कहा गया था। 1989 से लेकर अब तक इतने साल गुजर जाने के बाद इन बाल अधिकारों को बच्चों तक पहुंचाने की गति, मंशा, इच्छा क्या रही है, यह केवल इन तीन मामलों को, केवल एक शहर में देखकर हम समझ सकते हैं। 

बच्चों को जीवन का अधिकार है, विकास का अधिकार है और यह अधिकार उपलब्ध करवाना सरकार की जिम्मेदारी। लेकिन अमूमन हमारी सरकारों की सोच के ​केन्द्र में यह तो होता है कि अपराधों पर रोक लगे, लेकिन बच्चों पर हो रहे अपराध उसकी सोच के केन्द्र से परे है। इसलिए ऐसी कोई पुख्ता नीति ही नहीं बनाई जाती हैं जिनसे बच्चों के प्रति हो रहे अपराधों में कमी लाई जा सके।


अपहरण हो गया है। हेमपुष्पा नाम की तीन साल की बेटी के बारे में जब पुलिस ने मालूमात शुरू की तो शक की सुई रिपोर्ट लिखाने वाली महिला पर ही जा टिकी। जब सख्ती से पूछा तो उसने हत्या की बात स्वीकार कर ली। पहले कहा कि मारकर कुएं में फेंका, पिफर कहा तालाब में फेंका। हत्या के पांच दिन बाद तक बच्ची की डेड बॉडी तक बरामद नहीं हुई है।

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